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“एक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरवैर अकाल मूरत अजूनी स्वैभं गुरप्रसाद”

    अर्थ : अकाल पुरख (परमात्मा) एक है। उसके जैसा कोई और नहीं है। वो सब में रस व्यापक है। हर जगह मौजूद है। अकाल पुरख का नाम सबसे सच्चा है। ये नाम सदा अटल है, हमेशा रहने वाला है। वो सब कुछ बनाने वाला है और वो ही सब कुछ करता है। वो सब कुछ बनाके उसमें रस-बस गया है। अकाल पुरख को किससे कोई डर नहीं है। अकाल पुरख का किसी से कोई बैर (दुश्मनी) नहीं है। प्रभु की शक्ल काल रहित है। उन पर समय का प्रभाव नहीं पड़ता। बचपन, जवानी, बुढ़ापा मौत उसको नहीं आती। उसका कोई आकार कोई मूरत नहीं है। वो जूनी (योनियों) में नहीं पड़ता। वो ना तो पैदा होता है ना मरता है। उसको किसी ने ना तो जनम दिया है, ना बनाया है वो खुद प्रकाश हुआ है। स्वयंभू । गुरु की कृपा से परमात्मा हृदय में बसता है। गुरु की कृपा से अकाल पुरख की समझ इंसान को होती है।

 

          ‘सिख’ शब्द का उत्पन्न ‘शिष्य’ से हुआ है, जिसका तात्पर्य है “श्री गुरु नानक देव जी के शिष्य”, अर्थात् उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले। सिक्ख धर्म का उदय गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के साथ होता है। भारत के प्रमुख चार धर्मों में सिक्ख धर्म का विशेष स्थान है और यह विश्व का पाँचवा सबसे बड़ा धर्म है। जितना बड़ा यह धर्म है उतना ही बड़ा इस धर्म का इतिहास है जो की मानवता सेवा और बलिदान से भरा हुआ है। सिक्ख धर्म के अनुयायी मुख्यत: पंजाब (भारत) में रहते हैं। सिक्ख धर्म की प्रमुख पहचान पगड़ी है लेकिन वर्तमान समय में ऐसे भी कई सिक्ख हैं जो पगड़ी धारण नहीं करते हैं। सिक्ख धर्म सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास रखते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है। सिक्ख धर्म में १० गुरु हुए और अंत में दशमेश श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने सभी सिक्खों को श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी को अपना गुरु मानने का आदेश दिया। श्री गुरु गोविन्द सिंह जी के बाद सभी सिक्खों ने श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी को ही गुरु माना अपना। सिक्ख धर्म के दस गुरुओं और सिक्ख धर्म का गौरवपूर्ण इतिहास सदैव अमर है जिसे न तो झुठलाया जा सकता है और न ही भुलाया।

 

सिख गुरु (Sikh Guru) :

 

क्रमांक नाम गुरुगद्दी प्रकाश उत्सव ज्योति जोत आयु पिता माता
श्री गुरू नानक देव १५ अप्रैल १४६९ १५ अप्रैल १४६९ २२ सतंबर १५३९ ६९ महिता कालू माता त्रिपता
श्री गुरू अंगद देव ७ सतंबर १५३९ ३१ मारच १५०४ २९ मारच १५५२ ४८ बाबा फेरू मल माता रामो
श्री गुरू अमरदास २५ मारच १५५२ ५ मई १४७९ १ सतंबर १५७४ ९५ तेज भान माता बख़त कौर
श्री गुरू रामदास २९ अगसत १५७४ २४ सतंबर १५३४ १ सतंबर १५८१ ४७ बाबा हरीदास माता दइआ कौर
श्री गुरू अरजन देव २८ अगसत १५८१ १५ अप्रैल १५६३ ३० मई १६०६ ४३ गुरू रामदास माता भानी
श्री गुरू हरगोबिंद ३० मई १६०६ १९ जून 1१५९५ ३ मारच १६४४ ४९ गुरू अरजन देव माता गंगा
श्री गुरू हर राय २८ ಫरवरी १६४४ २६ ಫरवरी १६३० ६ अकतूबर १६६१ ३१ बाबा गुरदिता माता निहाल कौर
श्री गुरू हरकिशन ६ अकतूबर १६६१ ७ जुलाई १६५६ ३० मारच १६६४ गुरू हरिराइ माता क्रिशन कौर
श्री गुरू तेग बहादुर २० मारच १६६५ १ अप्रैल १६२१ ११ नवंबर १६७५ ५४ गुरू हरगोबिंद माता नानकी
१० श्री गुरु गोबिंद सिंह ११ नवंबर १६७५ २२ दसंबर १६६६ ६ अकतूबर १७०८ ४२ गुरू तेग बहादर माता गूजरी

 

श्री गुरु नानक देव (Shri Guru Nanak Dev) :

          श्री गुरु नानक देव जी सिख धर्म के प्रथम गुरु एवं प्रवर्तक थे। गुरु नानक देव का जन्म १४६९ ई. में लाहौर के समीप तलवण्डी नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री महिता कालू और माता का नाम श्रीमती तृप्ता था। गुरु नानक देव जी का विवाह सुलक्खिनी देवी जी से हुआ। विवाह उपरांत गुरु जी के दो पुत्र श्रीचंद और लखमीचंद हुए। गुरु नानक देब जी की सांसारिक जीवन में विशेष रूचि न होने पर वह अपने परिवार को सरूरल में छोड़ कर सत्संग, भ्रमण और उपदेश में व्यस्त हो गए। इस दौरान वे पंजाब, मक्का, मदीना, काबुल, सिंहल, कामरूप, पुरी, दिल्ली, कश्मीर, काशी, हरिद्वार आदि की यात्रा पर गये। गुरु जी की यात्राओं में उनके दो शिष्य ‘मर्दाना’ और ‘बालाबंधुं’ सदैव उनके साथ रहे। वह एक साधु स्वभाव के धर्म-प्रचारक थे जिन्होंने अपना सारा जीवन हिन्दू और इस्लाम धर्म की उन अच्छी बातों के प्रचार में लगाया जो समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी है। इसके फलस्वरूप हिन्दू और मुसलामान, दोनों ही उनके अनुयायी हो गए। बचपन से ही प्रतिभा के धनी गुरु नानक देव जी को एकांतवास, चिन्तन एवं सत्संग में विशेष रुचि थी। गुरुनानक ने अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव, आडम्बर, स्वार्थपरता और असत्य बोलने से दूर रहने अदि की शिक्षा दी। गुरु जी के स्वचरित पवित्र पद तथा शिक्षाएँ “श्री गुरु ग्रन्थ साहिब” में संकलित हैं। गुरु नानक देव जी १५३९ में ज्योति जोत समा गए।

श्री गुरु अंगद देव (Shri Guru Angada Dev) :

          श्री गुरु अंगद देव (भाई लहणा) जी सिक्खों के दूसरे गुरु थे। गुरु जी का जन्म हरीके (फिरोजपुर, पंजाब) में ३१ मार्च १५०४ को हुआ था। श्री गुरु अंगद देव जी के पिता श्री फेरू तथा माता श्रीमती रामो जी थे। श्री गुरु अंगद देव जी सनातन मत से बहुत प्रभावित थे और वह देवी दुर्गा को एक स्त्री एंवम मूर्ती के रूप में देवी मान कर, उसकी पूजा अर्चना करते थे। वह प्रतिवर्ष भक्तों के एक जत्थे का नेतृत्व कर ज्वालामुखी मंदिर जाया करते थे। श्री गुरु अंगद देव जी के जीवन में उस समय पूर्ण बदलाव आ गया जब वह गुरु नानक जी से मिले। श्री गुरु नानक साहिब जी ने उन्हें सच्चा ज्ञान दिया की परमेशर की शक्ति कोई औरत या मूर्ती नहीं बल्कि रूप हीन है और उसकी प्राप्ति सिर्फ अपने अंदर से ही की जा सकती है। श्री गुरु नानक देव इनको अपने शिष्यों में सबसे अधिक मानते थे और उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर श्री गुरु अंगद देव जी को ही अपना उत्तराधिकारी चुना। गुरु अंगद देव जी ने गुरू नानक साहिब जी के विचारों को लिखित एवं भावनात्मक दोनों रूपों में प्रचारित किया। गुरू अंगद देव जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा प्रदान पंजाबी लिपि के वर्णों में कुछ परिपर्तन कर गुरूमुखी लिपि की प्रदान की। गुरु अंगद देव जी ने विद्यालय व साहित्य केन्द्रों की स्थापना की और बच्चों की शिक्षा के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भाई बाला जी से श्री गुरू नानक देव जी की जीवनशैली जान कर गुरु जी की जीवनी लिखी। उनकी ६३ श्लोकों की रचना श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित हैं। उन्होने गुरू नानक साहिब जी द्वारा स्थापित सभी महत्वपूर्ण स्थानों में सिख धर्म के प्रवचन सुनाये और ‘गुरू का लंगर’ की प्रथा को बढ़ावा देकर प्रभावी बनाया। गुरु अंगद देव जी के काल में सिख पंथ ने अपनी एक धार्मिक पहचान स्थापित की। गुरु अंगद देव जी २८ मार्च, १५५२   को ज्योति जोत समा गए।

श्री गुर अमर दास (Shri Guru Amar Das) :

          श्री गुरु अमरदास जी का जन्म वैसाख १४वीं, सम्वत १५३६ को बसर्के गिलां गांव में हुआ था। श्री गुरू अंगद देव जी ने श्री गुरू अमरदास जी को गुरु गद्दी पर मार्च १५५२ को ७३ वर्ष की आयु में स्थापित किया था। गुरु अमरदास जी सिक्खों के तीसरे गुरु थे। आपके पिता जी का नाम श्री तेज भान भल्ला और माता का नाम श्रीमती बख्त कौर था। आपका विवाह बीबी मनसा देवी के साथ हुआ था विवाह के बाद गुरु जी के घर दो सपुत्रियां बीबी दानी और बीबी भानी जी और दो सपुत्र बाबा मोहन जी और बाबा मोहरी जी ने जन्म लिया। बीबी भानी जी का विवाह गुरू रामदास साहिब जी से हुआ था। श्री गुरू अमर दास साहिब जी ने बीबी अमरो जी से श्री गुरू नानक देव जी के शबद् सुन कर गुरू अंगददेव साहिब जी को अपना गुरू बना लिया और खडूर साहिब में ही रहने लगे। श्री गुरु अमर दास जी ने गुरु अंगद देव की १२ सालों तक सेवा की। श्री गुरु अमरदास जी ने लंगर स्थानों पर विशेस ध्यान दिय और जाति भेदभाव को खत्म किया। महिलाओं की शिक्षा पर गुरु अमरदास जी ने विशेष ध्यान दिया। गुरु अमर दास जी ने अकबर द्वारा सिक्खों पर लगने वाले कर से मुक्ति दिलाई। गुरु अमरदास जी ने समाज में फैली हुई विभिन्न प्रकार की कुरीतियों को खत्म करने के लिए लोगों को उचित मार्ग दिखाया। श्री गुरु अमरदास जी ने सती प्रथा का विरोध कर विधवाओं को दूसरा विवाह करने का समर्थन दिलाया। गुरु अमरदास जी ने अपने से पहले दोनो गुरुओं के उपदेशों को लोगों तक पहुंचाने का कार्य किया। गुरु जी ने मंजी और पिरी जैसे धार्मिक कार्यों की शुरूआत की। गुरु जी अपना सारा जीवन सिख धर्म के प्रचार एवं मानवता के कल्याण में लगा कर १ सितम्बर १५७४ को ज्योति जोत समा गए।

श्री गुरु रामदास जी (Shri Guru Ramdas Ji) :

          श्री गुरू राम दास का जन्म २४ सितम्बर १५३४ को चूना मण्डी, लाहौर में हुआ था। गुरु जी की माता का नाम श्री मति दया कौर जी एवं पिता का नाम श्री बाबा हरी दास जी सोढी खत्री था। गुरु अमरदास साहिब ने उन्हें चौथे गुरु की उपाधि १ सितम्बर १५७४ को सौंपी थी। श्री गुरु अमरदास जी की पुत्री का विवाह श्री गुरु अमरदास जी की पुत्री बीबी भानी जी से हुआ था। विवाह उपरांत उनके तीन पुत्र हुए जिनका नाम १. पृथी चन्द जी, २. महादेव जी एवं ३. अरजन साहिब जी था। जब श्री गुरु रामदास जी बाल्यावस्था में थे, तभी उनकी माता श्री का देहांत हो गया था। लगभग सात वर्ष की आयु में उनके पिता श्री का भी निधन हो गया। उसके बाद वह अपनी नानी के घर रहने लगे थे। श्री गुरु रामदास बड़े साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी सहनशीलता, नम्रता व आज्ञाकारिता के भाव देखकर श्री गुरु अमरदास जी ने अपनी छोटी बेटी की शादी इनसे कर दी थी। श्री गुरु रामदास जी ने १५७७ ई. में रामदासपुर शहर की स्थापना की थी जिसे अब अमृतसर के नाम से जाना जाता है। उन्होंने ही सिखों के आनन्द कारज सिख विवाह समारोह की शुरूआत की। उनके अनेक गीतों में से लावन एक गीत है जिसे सिख विवाह समारोह के दौरान गाया जाता है। श्री गुरु रामदास के कहने पर अकबर ने एक साल तक पंजाब से लगान नहीं लिया था। हरमिंदर साहिब यानि “स्वर्ण मंदिर” की नींव भी इनके कार्यकाल में ही रखी गई। श्री गुरु रामदास जी ने ही स्वर्ण मंदिर के चारों ओर की दिशाओं पर द्वार बनवाएं। इन द्वारों का अर्थ है कि यह मंदिर हर धर्म, जाति, लिंग के व्यक्ति के लिए खुला है और कोई भी यहां बेरोक-टोक आ जा सकता है। अपने पूर्वजों की ही तरह उन्होंने भी गुरु के लंगर का प्रचार-प्रसार किया। धार्मिक यात्रा के प्रचलन को बढ़ावा दिया। गुरु रामदास ने अपने सबसे छोटे बेटे अरजन साहिब को पांचवें नानक की उपाधि सौंपी। उन्होंने ३० रागों में ६३८ शबद् लिखे जिनमें २४६ पौउड़ी, १३८ श्लोक, ३१ अष्टपदी और ८ वारां हैं और इन सब को गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित किया गया है। अपने अंतिम समय में गुरु जी अमृतसर छोड़कर गोइन्दवाल चले गये थे । गुरु जी १ सितम्बर १५८१ को ज्योति जोत समा गए।

श्री गुरु अर्जन देव जी (Shri Guru Arjan Dev ji) :

          श्री गुरु अर्जन देव जी का जन्म १५ अप्रैल १५६३ को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। श्री गुरु अर्जन देव जी सिख धर्म के पांचवे गुरु हैं। श्री गुरु अर्जन जी, गुरु रामदास के सबसे छोटे पुत्र थे। उनकी माता श्री का नाम बीबी भनी था। श्री गुरु अर्जन देव जी शहीदों के सरताज एवं शान्तिपुंज थे। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता था। गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है। श्री गुरु अर्जन देव जी पहले सिख गुरु थे जो शहीद हुए थे। सिख धर्म में इन्हें शहीदों का सरताज एवं शान्तिपुंज कहा जाता है। श्री गुरु अर्जन साहिब ने आदी ग्रंथ जो कि “गुरु ग्रंथ साहिब का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है” का संकलन किया था। श्री गुरु अर्जन जी के काल में “नानक देव” की शिक्षाओं के प्रति लोगों का रुझान अधिक बढ़ने लगा था। सिख संस्कृति को गुरु जी ने घर-घर तक पहुंचाने के लिए अथाह प्रयत्‍‌न किए। गुरु दरबार की सही निर्माण व्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गुरु अर्जन देव जी के कार्यकाल के दौरान हरि मंदिर साहिब का निर्माण कार्य पूरा हुआ। श्री गुरु अर्जन देव जी ने अपने पूर्वजों के गीतों व अनेक हिन्दू और सूफी भजनों को संगृहीत किया। श्री गुरु अर्जन देव जी के कार्यकाल के दौरान अमृतसर शहर सिख धर्म के लोगों के लिए एक मुख्य केन्द्र बन गया जहां लोग हर साल बैसाखी के मौके पर एकत्रित होने लगे। सिख गुरुओं ने अपना बलिदान देकर मानवता की रक्षा करने की जो परंपरा स्थापित की, उनमें सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी का बलिदान महान माना जाता है। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने सिख धर्म को एक नई पहचान तक पहुंचाया इसी कारण वह मुगल बादशाहों की नजरों में भी आ गए। मुगल बादशाह जहांगीर ने उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए प्रताड़ित किया हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए श्री गुरु अर्जन देव जी खोलते देग पर बैठ गए इसके उपरांत उनको ताप्ती तवी पर बिठाया गया और उनके शरीर पर गर्म रेत डाली गयी, परन्तु शांत के पुंज श्री गुरु अर्जन देव जी इन अमानवीय अत्याचारों से नहीं डरे और शांति पूर्वक तपती तवी पर बैठ कर गुरबाणी का पथ करते रहे। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की- तेरा कीआ मीठा लागे॥ हरि नामु पदारथ नानक मांगे॥ किसी मुस्लिम बादशाह के हाथों सजा पाने वाले वह पहले सिख गुरु थे। उनकी इस महान शहादत को याद करते हुए प्रत्येक वर्ष शहीदी दिवस पर पूरे भारत वर्ष में शावील लगाई जाती है जिसमें मीठे शरबत के साथ शोले का प्रसाद दिया जाता है। जहांगीर की यातनाओं को सहते हुए १६ जून १६०६ को गुरु जी ज्योति जोत समा गए।

श्री गुरु हरगोबिन्द सिंह जी (Shri Guru Hargobind Singh ji) :

          श्री गुरु हरगोबिन्द सिंह जी का जन्म १९ जून १५९५ गुरू की वडाली, अमृतसर (पंजाब) में हुआ था। श्री गुरु हरगोबिन्द सिंह जी सिंह सिखों के छठे गुरु थे। यह सिखों के पांचवें गुरु अर्जन देव जी के पुत्र थे। सन् १६०६ में ११ साल की उम्र में ही गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने अपने पिता से गुरु की उपाधि पा ली थी। श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब की शिक्षा दीक्षा महान विद्वान् भाई गुरदास की देख-रेख में हुई। गुरु जी ने सिक्ख धर्म, संस्कृति एवं इसकी आचार-संहिता में अनेक ऐसे परिवर्तनों को अपनी आंखों से देखा जिनके कारण सिक्खी का महान बूटा अपनी जडे मजबूत कर रहा था। विरासत के इस महान पौधे को गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपनी दिव्य-दृष्टि से सुरक्षा प्रदान की तथा उसे फलने-फूलने का अवसर भी दिया। अपने पिता श्री गुरु अर्जुन देव की शहीदी के आदर्श को उन्होंने न केवल अपने जीवन का उद्देश्य माना, बल्कि उनके द्वारा जो महान कार्य प्रारम्भ किए गए थे, उन्हें सफलता पूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए आजीवन अपनी प्रतिबद्धता भी दिखलाई। गुरु हरगोबिन्द सिंह ने ही सिखों को अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण लेने के लिए प्रेरित किया व सिख पंथ को योद्धा चरित्र प्रदान किया। वे स्वयं एक क्रांतिकारी योद्धा थे। इनसे पहले सिख पंथ निष्क्रिय था। वह चाहते थे कि सिख कौम शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म का मुकाबला करने के लिए भी सशक्त बने। उन्होंने सिखों एक छोटी-सी सेना इकट्ठी कर ली थी। इससे नाराज होकर जहांगीर ने उनको १२ साल तक कैद में रखा। रिहा होने के बाद उन्होंने शाहजहां के खिलाफ़ बगावत कर दी और १६२८ ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फौज को हरा दिया। गुरु अरजन साहिब जी की शहादत के बाद सिखों ने मुगल साम्राज्य की मनमानी को रोकने के लिए पहली बार गंभीरता से विचार किया था। गुरु हरगोबिंद साहिब ने शांति और ध्यान में लीन रहने वाली इस कौम को राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों तरीकों से चलाने का फैसला किया। गुरु हरगोबिंद सिंह ने दो तलवारें पहननी शुरू की, एक आध्यात्मिक शक्ति के लिए – पिरी और एक सैन्य शक्ति के लिए – मिरी। यह दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजीने पहनाई। यहीं से सिख इतिहास एक नया मोड लिया। अब सिखों की भूमिका बढ़कर संत सैनिकों की बन चुकी थी। देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोडे देने प्रारम्भ किए। गुरु जी युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहते थे। उनके पास इतनी बडी सैन्य शक्ति थी कि मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे। गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी।श्री गुरु हरगोबिन्द सिंह जी स्वयं एक शक्तिशाली योद्धा थे और उन्होंने दूसरे सिखों को भी लड़ने का प्रशिक्षण दिया। गुरु जी ने इस बात को अपना मूल सिद्धान्त बनाया कि एक सिख योद्धा केवल बचाव के लिए तलवार उठाएगा ना कि हमले के लिए। गुरु जी ने ही अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया था। अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की। इसका श्रेय श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब को ही जाता है। श्री गुरु हरगोबिन्द सिंह जी ने अपने जीवनकाल में बुनियादी मानव अधिकारों के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं। गुरु जी १९ मार्च १६४४ को कीरतपुर साहिब में ज्योति-जोत समा गए।

श्री गुरु हर राय जी (Shri Guru Har rai ji) :

          श्री गुरु हर राय जी का जन्म १६ जनवरी १६३० को कीरतपुर साहिब, रूपनगर, पंजाब में हुआ था। गुरु जी सिख धर्म के सातवें गुरु थे। गुरू हरराय साहिब जी बाबा गुरदित्ता जी एवं माता निहाल कौर जी के पुत्र थे। वह गुरु हर गोबिंद सिंह के पोते थे और अपने दयालु हृदय के लिए जाने जाते थे। गुरू हरराय साहिब जी का विवाह माता किशन कौर जी से हुआ था। गुरू हरराय साहिब जी के दो पुत्र थे श्री रामराय जी और श्री हरकिशन साहिब जी। 14 साल की उम्र में ही श्री गुरु हर राय जी को नानक की उपाधि प्राप्त हो गई थी। गुरु हर राय एक शांति प्रिय गुरु थे। अपने काल में इन्होंने मुगलों के प्रति उदार व्यवहार अपनाने के कारण काफी आलोचना सही। लेकिन स्वभाव से शांत गुरु हर राय जी चाहते थे कि सही समय पर मुगलों को जवाब दिया जाए। वह पहले सिखों को एकत्रित और आध्यात्मिक स्तर पर मजबूत बनाना चाहते थे। गुरु हरराय साहिब जी ने अपने दादा गुरू हरगोविन्द साहिब जी के सिख योद्धाओं के दल को पुनर्गठित किया। अपने राष्ट्र केन्द्रित विचारों के कारण मुगल औरंगजेब को परेशानी हो रही थी। औरंगजेब का आरोप था कि गुरू हरराय साहिब जी ने शाहजहां के सबसे बड़े पुत्र दारा शिकोह की सहायता की थी। दारा शिकोह संस्कृत भाषा के विद्वान था। और भारतीय जीवन दर्शन उसे प्रभावित करने लगा था। गुरु हर राय जी का कहना था कि दारा शिकोह मुसीबत में था और एक सच्चा सिख होने के नाते उन्होंने उसकी मदद की। औरंगजेब को जब यह बात पता चली तो उसने गुरु हर राय जी को सभा में बुलाया। गुरु हरराय जी ने अपने बड़े पुत्र राम राय अपनी जगह भेजा। अपने पिता गुरु हरराय साहिब को क्षमा दिलाने के लिए राम राय जी ने आदि ग्रंथ की कुछ पंक्तियों में फेर-बदल कर औरंगजेब को सुना दी। कहा जाता है कि इन पंक्तियां से सिख धर्म को अपमानित करने का भाव आता था। जब गुरु हरराय जी को यह बात पता चली तो वह बेहद क्रोधित हुए और उन्होंने बड़े बेटे की जगह छोटे बेटे को अपनी गद्दी का उत्तराधिकारी बनाया। गुरु हर राय एक अद्धभुत वैद्य थे। गुरू हरराय साहिब जी ने कीरतपुर में एक आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी दवाईयों का अस्पताल एवं अनसुधान केन्द्र की स्थापना भी की। वह प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग को बढ़ावा देते थे। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने एक चिड़ियाघर का भी निर्माण कराया। गुरु हर राय साहिब ने गुरु ग्रंथ साहिब (उस समय आदि ग्रंथ) की मूल कविताओं को किसी भी प्रकार से तोड़-मरोड़ कर पेश करने के खिलाफ एक सख्त कानून का प्रारंभ किया ताकि गुरु नानक साहिब द्वारा दी गई बुनियादी शिक्षाओं को हानि ना पहुंचे। गुरू हरराय साहिब ने लाहौर, सियालकोट, पठानकोट, साम्बा, रामगढ एवं जम्मू एवं कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों का प्रवास किया। उन्होने ३६० मंजियों की स्थापना की। उन्होने भ्रष्ट मसन्द पद्धति सुधारने हेतु सुथरेशाह, साहिबा, संगतिये, मिंया साहिब, भगत भगवान, भगत मल एवं जीत मल भगत जैसे पवित्र एवं आध्यात्मिक लोगों को मंजियों का प्रमुख नियुक्त किया। श्री गुरु हर राय जी ६ अक्टूबर १६६१ में कीरतपुर साहिब में ज्योति जोत समा गये।

श्री गुरु हरकिशन साहिब जी (Shri Guru Harkishan Sahib ji) :

          श्री गुरु हरकिशन जी का जन्म ७ जुलाई १६५६ को कीरतपुर साहिब, पंजाब में हुआ था। श्री गुरु हरकिशन जी गुरू हर राय साहिब जी एवं माता किशन कौर के दूसरे पुत्र थे। मात्र पांच साल की आयु में ही उन्हें अपने पिता गुरु हर राय साहिब जी द्वारा गुरु की पदवी हासिल हुई थी। श्री गुरु हरकिशन जी सिख धर्म के आठवें गुरु हैं। राम राय जो गुरु हरकिशन के बड़े भाई थे उन्हें यह बात पसंद नहीं आई कि पिता ने छोटे भाई को गुरु बना दिया। वह राजा औरंगज़ेब के पास अपनी शिकायत लेकर पहुंच गए। इस बात पर औरंगज़ेब ने गुरु हरकिशन साहिब को कीरतपुर से बुलवा लिया। गुरु जी के बड़े भाई राम राय को उनके गुरू घर विरोधी क्रियाकलापों एवं मुगल सलतनत के पक्ष में खड़े होने की वजह से सिख पंथ से निष्कासित कर दिया गया था। कुछ लोगों को इस बात पर संदेह था कि गुरु हरकिशन साहिब में गुरु बनने लायक कोई शक्ति है भी या नहीं। इन्हीं में से एक था लाल चंद, एक हिन्दू साहित्य का प्रखर विद्वान एव आध्यात्मिक पुरुष था जो इस बात से विचलित था कि एक बालक को गुरुपद कैसे दिया जा सकता है। जिसने दिल्ली जाने से पहले गुरु हरकिशन साहिब को गीता का अर्थ बताने की चुनौती दी। इस बात पर गुरु हरकिशन साहिब ने कहा कि वह उनके बदले किसी और को यह कार्य बोलकर करने के लिए ले आए। तब लाल चंद एक बहरे और मूक शख्स छाजू राम को ले आया और गुरु हरकिशन साहिब के छाजू राम को हाथ लगाते ही वह शख्स गीता का अर्थ बताने लगा। इस बात पर सभी भौंचक्का रह गए और लाल चंद गुरु हरकिशन के पैरों में गिर गया। इसके पश्चात लाल चन्द ने सिख धर्म को अपनाया एवं गुरू साहिब को कुरूक्षेत्र तक छोड़ा। जब श्री गुरु हरकिशन साहिब दिल्ली पहुंचे तो राजा जय सिंह एवं दिल्ली में रहने वाले सिखों ने उनका बड़े ही गर्मजोशी से स्वागत किया। गुरू साहिब को राजा जय सिंह के महल में ठहराया गया। सभी धर्म के लोगों का महल में गुरू साहिब के दर्शन के लिए तांता लग गया। इसी दौरान दिल्ली में हैजा और छोटी माता जैसी बीमारियों का प्रकोप महामारी लेकर आया। जात पात एवं ऊंच नीच को दरकिनार करते हुए गुरू साहिब ने सभी भारतीय जनों की सेवा का अभियान चलाया। खासकर दिल्ली में रहने वाले मुस्लिम उनकी इस मानवता की सेवा से बहुत प्रभावित हुए एवं वो उन्हें “बाला पीर” कहकर पुकारने लगे। जनभावना एवं परिस्थितियों को देखते हुए औरंगजेब भी उन्हें नहीं छेड़ सका। दिन रात महामारी से ग्रस्त लोगों की सेवा करते करते गुरू साहिब अपने आप भी तेज ज्वर से पीड़ित हो गये। छोटी माता के अचानक प्रकोप ने उन्हें कई दिनों तक बिस्तर से बांध दिया। जब उनकी हालत कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गयी तो उन्होने अपनी माता को अपने पास बुलाया और कहा कि उनका अन्त अब निकट है। जब उन्हें अपने उत्तराधिकारी को नाम लेने के लिए कहा, तो उन्हें केवल बाबा बकाला’ का नाम लिया। यह शब्द केवल भविष्य गुरू, गुरू तेगबहादुर साहिब, जो कि पंजाब में ब्यास नदी के किनारे स्थित बकाला गांव में रह रहे थे, के लिए प्रयोग हुआ था। गुरू साहिब ३० मार्च १६६४ को ज्योति जोत समा गये।

श्री गुरु तेग बहादुर जी (Shri Guru Teg Bahadur ji) :

          श्री गुरु तेग बहादुर जी का जन्म १८ अप्रैल, १६२१ को पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। वह सिखों के नौवें गुरु थे। बचपन से ही गुरु तेग बहादुर जी अपना अधिक समय ध्यान में लीन रहकर बिताते थे। वह गुरु हरगोबिंद साहिब के सबसे छोटे बेटे थे। धर्म, मानवता, सिद्धांतों के लिए शहीद होने वाले श्री गुरु तेग बहादुर जी का स्थान सिख धर्म में विशेष महत्व रखता है। गुरु तेग बहादर साहिब ने धर्म की रक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और सही अर्थों में ‘हिन्द की चादर’ कहलाए। पहले पांच नानकों की तरह उन्हें भी शबद का रहस्योमय अनुभव हुआ था और उन्होंने भी कई गीतों का लेखन किया। उनके द्वारा रचित ११५ पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं। गुरु नानक साहिब की तरह ही उन्होंने भी कई जगहों का भ्रमण किया। उस समय मुगल शासक जबरन लोगों का धर्म परिवर्तन करवा रहे थे। इससे परेशान होकर कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर जी के पास आए और उन्हें बताया कि किस प्रकार ‍इस्लाम को स्वीकार करने के लिए अत्याचार किया जा रहा है। इसके बाद उन्होंने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगजेब से कह ‍दें कि यदि गुरु तेग बहादुर जी ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेग बहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे। औरंगजेब ने यह स्वीकार कर लिया। वे औरंगजेब के दरबार में गए। औरंगजेब ने उन्हें तरह-तरह के लालच दिए, पर गुरु तेग बहादुर जी नहीं माने तो उन पर ज़ुल्म किए गए, उन्हें कैद कर लिया गया, दो शिष्यों को मारकर गुरु तेग बहादुर जी को डराने की कोशिश की गई, पर वे नहीं माने। इसके बाद उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेग बहादुर जी का शीश काटने का हुक्म जारी कर दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया। हिन्द की चादर गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने २४ नवंवर, १६७५ को धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया और ज्योति जोत समा गए।

“धरम हेत साका जिनि कीआ
सीस दीआ पर सिरड न दीआ।”

इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।

श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी (Shri Guru Gobind Singh Ji) :

          श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म नौवें सिख गुरु गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में २२ दिसम्बर १६६६ को हुआ था। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। श्री गुरु गोबिन्द सिंह सिखों के दसवें और अंतिम गुरु माने जाते हैं। उनके पिता श्री गुरू तेग बहादुर जी की मृत्यु के उपरान्त ९ वर्ष की आयु में ११ नवम्बर सन १६७५ को उन्हें गुरुगद्दी मिली थी। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी जहां बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरु जी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वह अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुगलों का शासन था। उन्होंने धर्म की रक्षा और अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार हाथ में उठाई थी। उन्होने मुगलों और उनके सहयोगियों के साथ १४ युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें ‘सर्वस्वदानी’ भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। उनके बड़े पुत्र बाबा अजीत सिंह और एक अन्य पुत्र बाबा जुझार सिंह ने चमकौर के युद्ध में शहादत प्राप्त की थी। जबकि छोटे बेटों में बाबा जोरावर सिंह और फतेह सिंह को नवाब ने जिंदा दीवारों में चुनवा दिया था। गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित कर गुरु प्रथा समाप्त कर गुरु ग्रंथ साहिब को ही एकमात्र गुरु मान लिया। धर्म की रक्षा करते हुए गुरु साहिब ७ अक्टूबर १७०८ को ज्योति जोत समा गए।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी (Shri Guru Granth Sahib Ji) :

          श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी आदिग्रन्थ सिख संप्रदाय का प्रमुख धर्मग्रन्थ है। इसका संपादन सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी ने किया। गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पहला प्रकाश १६ अगस्त १६०४ को हरिमंदिर साहिब अमृतसर में हुआ। १७०५ में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोविंद सिंह जी ने गुरु तेगबहादुर जी के ११६ शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया, इसमे कुल १४३० पृष्ठ है।
गुरुग्रन्थ साहिब में मात्र सिख गुरुओं के ही उपदेश नहीं है, वरन् ३० अन्य हिन्दू संत और अलंग धर्म के मुस्लिम भक्तों की वाणी भी सम्मिलित है। इसमे जहां जयदेवजी और परमानंदजी जैसे ब्राह्मण भक्तों की वाणी है, वहीं जाति-पाति के आत्महंता भेदभाव से ग्रस्त तत्कालीन हिंदु समाज में हेय समझे जाने वाली जातियों के प्रतिनिधि दिव्य आत्माओं जैसे कबीर, रविदास, नामदेव, सैण जी, सघना जी, छीवाजी, धन्ना की वाणी भी सम्मिलित है। पांचों वक्त नमाज पढ़ने में विश्वास रखने वाले शेख फरीद के श्लोक भी गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। अपनी भाषायी अभिव्यक्ति, दार्शनिकता, संदेश की दृष्टि से गुरु ग्रन्थ साहिब अद्वितीय है। इसकी भाषा की सरलता, सुबोधता, सटीकता जहां जनमानस को आकर्षित करती है। वहीं संगीत के सुरों व ३१ रागों के प्रयोग ने आत्मविषयक गूढ़ आध्यात्मिक उपदेशों को भी मधुर व सारग्राही बना दिया है।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में उल्लेखित दार्शनिकता कर्मवाद को मान्यता देती है। गुरुवाणी के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मो के अनुसार ही महत्व पाता है। समाज की मुख्य धारा से कटकर संन्यास में ईश्वर प्राप्ति का साधन ढूंढ रहे साधकों को गुरुग्रन्थ साहिब सबक देता है। हालांकि गुरु ग्रन्थ साहिब में आत्मनिरीक्षण, ध्यान का महत्व स्वीकारा गया है, मगर साधना के नाम पर परित्याग, अकर्मण्यता, निश्चेष्टता का गुरुवाणी विरोध करती है। गुरुवाणी के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व से विमुख होकर जंगलों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर हमारे हृदय में ही है, उसे अपने आन्तरिक हृदय में ही खोजने व अनुभव करने की आवश्यकता है। गुरुवाणी ब्रह्मज्ञान से उपजी आत्मिक शक्ति को लोककल्याण के लिए प्रयोग करने की प्रेरणा देती है। मधुर व्यवहार और विनम्र शब्दों के प्रयोग द्वारा हर हृदय को जीतने की सीख दी गई है।

खालसा पंथ की स्थापना (Khalsa Panth Ki Sthapna) :

          खालसा पंथ सिख धर्म के विधिवत् दीक्षाप्राप्त अनुयायियों का सामूहिक रूप है। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने धर्म की रक्षा हेतु सन १६९९ में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। इस दिन उन्होंने सर्वप्रथम पाँच प्यारों को अमृतपान करवा कर खालसा बनाया तथा तत्पश्चात् उन पाँच प्यारों के हाथों से स्वयं भी अमृतपान किया।
जब कोई धर्म आगे बढ़ता है तो उसके बहुत आम दीखता है कि उसके अनुयायी बहुत हैं, ज्यादातर तो देखा-देखी हो जाते हैं, कुछ शरधा में हो जाते हैं और कुछ अपने खुदगर्जी के कारण हो जाते हैं परन्तु सच्चे असल अनुयायी तो होते ही गिने चुने हैं। इस बात का प्रमाण आनंदपुर साहिब में मिला। जब श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब ने तलवार निकाल कर कहा की “उन्हें एक सिर चाहिये” सब हक्के बक्के रह गए। कुछ तो मौके से ही खिसक गए। कुछ कहने लग पड़े गुरु पागल हो गया है। कुछ तमाशा देखने आए थे। कुछ माता गुजरी के पास भाग गए की देखो तुमहरा सपुत्र क्या खिचड़ी पका रहा है।
१० हज़ार की भीड़ में से पहला हाथ भाई दया सिंह जी का था। गुरमत विचारधारा के पीछे वोह सिर कटवाने की शमता रखता था। गुरु साहिब उसको तम्बू में ले गए। वहाँ एक बकरे की गर्दन काटी। खून तम्बू से बहर निकलता दिखाई दिया। जनता में डर और बढ़ गया। तब भी हिमत दिखा कर धर्म सिंह, हिम्मत सिंह, मोहकम सिंह, साहिब सिंह ने अपना सीस कटवाना स्वीकार किया। गुरु साहिब बकरे झटकते रहे। कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
उसके बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले ५ खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच ककारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्छा।
खंडा बाटा, यंत्र मंत्र और तंत्र के स्मेल से बना है। इसको पहली बार सतगुर गोबिंद सिंह ने बनाया था। यंत्र – बाटा (बर्तन) और दो धारी खंडा, मंत्र – ५ बानियाँ – जपु साहिब, जाप साहिब, त्व प्रसाद सवैये, चोपाई साहिब, आनंद साहिब और तंत्र – मीठे पतासे डालना, बानियों को पढ़ा जाना और खंडे को बाटे में घुमाना।
स्वयं गुरु गोबिंद सिंह जी भी पांच प्यारों के आधीन चला करते थे और उन के हुक्म को माना करते थे। पांच प्यारों ने श्री गुरु गोबिंद सिंह को चमकोर का किला छोड़ने का हुक्म दिया और उन्हें मानना पड़ा था। पांच प्यारों ने फिर गोबिंद सिंह साहिब जी को टोका, जब वह इनकी परख के लिए दादू की कब्र पर नमस्कार कर रहे थे। गोबिंद सिंह और खालसा फ़ौज ने बहादुर शाह की मदद की और उसे शासक बनाने के लिए उसके भाई से लोहा भी लिया। खालसा ने ही गुरु गोबिंद सिंह साहिब की बानियों को खोजा और ग्रन्थ के रूप में ढाला।

सिख धर्म की विचारधारा ( SIkh Dharam Ki Vichardhara) :

  • निरंकार :

सिखमत की शुरुआत ही “एक” से होती है। सिखों के धर्म ग्रंथ में “एक” की ही व्याख्या हैं। एक को निरंकार, पारब्रह्म आदिक गुणवाचक नामों से जाना जाता हैं। निरंकार का स्वरूप श्री गुरुग्रंथ साहिब के शुरुआत में बताया है जिसको आम भाषा में ‘मूल मन्त्र’ कहते हैं।
१ ओंकार सतिनामु करतापुरखु निर्भाओ निरवैरु अकालमूर्त अजूनी स्वैभंग गुर पर्सादि॥जपु॥आदि सचु जुगादि सचु ॥है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥ पर मूल मन्त्र समाप्त होता है।
तकरीबन सभी धर्म इसी “एक” की आराधना करते हैं, लेकिन “एक” की विभिन्न अवस्थाओं का ज़िक्र व व्याख्या श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दी गई है वो अपने आप में निराली है।

  • जीव आत्मा :

जीव आत्मा जो निराकार है, उस के पास निरंकार के सिर्फ ४ ही गुण व्याप्त हैं।

औंकार
सतिनाम
करता पुरख
स्वैभंग

बाकी चार गुण प्राप्त करते ही जीव आत्मा वापिस निरंकार में समां जाती है, लेकिन उसको प्राप्त करने के लिए जीव आत्मा को खुद को गुरमत के ज्ञान द्वारा समझना ज़रूरी है। इसे सिख धर्म में “आतम चिंतन” कहा जाता है। आत्मा का निराकारी स्वरूप मन, चित, सुरत, बुधि, मति आदिक की जानकारी सिख धर्म के मूल सिख्याओं में दी जाती है। इन की गतिविधिओं को समझ कर इंसान खुद को समझ सकता है।
सिख धर्म की शुरुआत ही आतम ज्ञान से होती है। आत्मा क्या है? कहा से आई है? वजूद क्यों है? करना क्या है इतिहादी रूहानियत के विशे सिख प्रचार द्वारा पढाये जाते हैं। आत्मा के विकार क्या हैं, कैसे विकार मुक्त हो। आत्मा स्वयम निरंकार की अंश है। इसका ज्ञान करवाते करवाते निरंकार का ज्ञान हो जाता है।

  • पाप पुन्य दोउ एक सामान :

सिख्मत कार्मिक फलसफे में यकीन नहीं रखता। अन्य धर्मो का कहना है कि प्रभु को अछे कर्म पसंद हैं और बुरे कर्मो वालों के साथ परमेश्वर बहुत बुरा करता है। लेकिन सिख धर्म के अनुसार इंसान खुद कुछ कर ही नहीं सकता। इंसान सिर्फ़ सोचने तक सीमित है करता वही है जो “हुक्म” में है, चाहे वो किसी गरीब को दान दे रहा हो चाहे वो किसी को जान से मार रहा हो। यही बात श्री गुरुग्रन्थ साहिब जी के शुरू में ही दृढ़ करवा दी थी।

हुक्मे अंदर सब है बाहर हुक्म न कोए
जो हिता है हुकम में ही होता है। हुक्म से बाहर कुछ नहीं होता।

इसी लिए सिख धर्म में पाप पुन्य को नहीं माने जाता। अगर इंसान कोई कर्म करता है तो वो अंतर आत्मा के साथ आवाज़ मिला कर करे। यही कार्ण है की सिख धर्म कर्म कांड के विरुद्ध है। श्री गुरु नानक देव जी ने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूढ़ियों और पाखण्डों को दूर करते हुए जन-साधारण को धर्म के ठेकेदारों, पण्डों, पीरों आदि के चंगुल से मुक्त करने की कोशिश की।

  • चार पदार्थ:

निम्नलिखित चार ‘पदार्थ’ मानव को अपने जीवनकाल में प्राप्त करना अनिवार्य है :

ज्ञान पदार्थ या प्रेम पदार्थ : यह पदार्थ किसी से ज्ञान लेकर प्राप्त होता है। कहीं से गुरमत का ज्ञान पढ़ कर या समझ कर। भक्त लोक ये पदार्थ देते हैं। इसमे माया में रह कर माया से टूटने का ज्ञान है। सब विकारों को त्यागना और निरंकार को प्राप्ति करना ही विषये है।
मुक्त पदार्थ: ज्ञान के बाद ही मुक्त है। माया की प्यास ख़त्म हो गयी है। मन चित एक है। जीव सिर्फ़ नाम की आराधना करता है। इसको जीवित मुक्त कहते हैं।
नाम पदार्थ: नाम आराधना से प्राप्त किया हुआ निराकारी ज्ञान है। इसको धुर की बनी भी कहते हैं। ये बगैर कानो के सुनी जाती है और हृदय में प्रगत होती है। यह नाम ही जीवित करता है। आँखें खोल देता है। ३ लोक का ज्ञान मिल जाता है।
जन्म पदार्थ: “नानक नाम मिले तां जीवां”, यह निराकारी जन्म है। बस शरीर में है लेकिन सुरत शब्द के साथ जुड़ गयी है। शरीर से प्रेम नहीं है। दुःख एवं सुख कुछ भी नहीं मानता, पाप पुण्य कुछ भी नहीं। बस जो हुकम होता है वो करता है।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पदार्थों में नहीं लिया गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहते हैं:

ज्ञान के विहीन लोभ मोह में परवीन,
कामना अधीन कैसे पांवे भगवंत को

  • वस्तु पूजा का खंडन :

सिखमत में भक्तों एवम सत्गुरों ने निरंकार को अकार रहित कहा है। क्योंकि सांसारिक पदार्थ तो एक दिन खत्म हो जाते हैं लेकिन पारब्रह्म कभी नहीं मरता। इसी लिए उसे अकाल कहा गया है। यही नहीं जीव आत्मा भी आकर रहित है और इस शरीर के साथ कुछ समय के लिए बंधी है। इसका वजूद शरीर के बगैर भी है, जो आम मनुष्य की बुधि से दूर है।

यही कार्ण है की सिखमत मूर्ती पूजा के सख्त खिलाफ़ है। कोई भी संसारी पदार्थ जैसे की कबर, भक्तो एवं सत्गुरुओं के इतिहासक पदार्थ, प्रतिमाएं आदिक को पूजना सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ़ है। धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान एक विधि जो निरंकार के देश की तरफ लेकर जाती है, जिसके समक्ष सिख नतमस्तक होते हैं, लेकिन धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ है।

  • अवतारवाद और पैगम्बरवाद का खंडन :

सिखमत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव उस निरंकार की अंश है। संसार में कोई भी पंची, पशु, पेड़, इतियादी अवतार हैं। मानुष की योनी में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। व्यक्ति की पूजा सिख धर्म में नहीं है “मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने, को एके भगवान”। तमाम अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरे नहीं उतरते कोई भी अजूनी नहीं है। यही कारण है की सिख किसी को परमेशर के रूप में नहीं मानते। हाँ अगर कोई अवतार गुरमत का उपदेस करता है तो सिख उस उपदेश के साथ ज़रूर जुड़े रहते हैं। जैसा की कृष्ण ने गीता में कहा है की आत्मा मरती नहीं और जीव हत्या कुछ नहीं होती, इस बात से तो सिखमत सहमत है लेकिन आगे कृष्ण ने कहा है की कर्म ही धर्म है जिस से सिख धर्म सहमत नहीं।
पैग़म्बर वो है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान बांटे। जैसा की इस्लाम में कहा है की मुहम्मद आखरी पैगम्बर है सिखों में कहा गया है कि “हर जुग जुग भक्त उपाया”। भक्त समे दर समे पैदा होते हैं और निरंकार का सन्देश लोगों तक पहुंचाते हैं। सिखमत “ला इलाहा इल्ल अल्लाह (अल्लाह् के सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है )” से सहमत है लेकिन सिर्फ़ मुहम्मद ही रसूल अल्लाह है इस बात से सहमत नहीं। अर्जुन देव जी कहते हैं “धुर की बानी आई, तिन सगली चिंत मिटाई”, अर्थात मुझे धुर से वाणी आई है और मेरी सगल चिंताएं मिट गई हैं किओंकी जिसकी ताक में मैं बैठा था मुझे वो मिल गया है।